बखतराम शाह के ‘बुद्धिविलास’ में जयपुर की पतंगबाजी





जयपुर में अनेक धार्मिक पर्वों को लोकरंजक स्वरूप दे दिया गया है। मकर संक्रांति (makar sankranti) यहां सकरात के रूप में मनाई जाती है। जन साधारण के लिए तो सकरात मुख्य रूप से पतंग (kite) उड़ाने का ही त्योहार है। ढूंढाड़ प्रदेश में बहुत प्राचीनकाल से पतंग उड़ाने की परंपरा रही है। महाकवि बिहारी की ‘बिहारी सतसई’ से पता चलता है कि मिर्जा राजा जयसिंह के समय से आमेर में पतंगें उड़ाई जाती थीं। ‘बिहारी सतसई’ के अनेक दोहों में पतंग उड़ाए जाने का वर्णन मिलता है। बिहारी ने पतंग के लिए गुड़ी शब्द का प्रयोग किया है। अपने एक प्रसिद्ध दोहे में बिहारी ने लिखा है कि जब नायिका ने अपने प्रिय की गुड़ी उड़ती हुई देखी और देखा कि उसके स्वयं के घर के आंगन में भी उस गुड़ी की छाया पड़ रही है। यह देखकर वह नायिका पतंग की छाया को छूने के लिए बावली सी होकर इधर-उधर दौड़ी फिर रही है। ऐसा लगता है कि मानो वह अपने प्रिय की ओर से उड़ाई गई गुड़ी की छाया के स्पर्शसे अपने प्रियतम के स्पर्श का आनंद प्राप्त कर रही हो- उड़ी गुड़ी लखि ललन की, अंगना अंगना मांह। बौरी लों दौरी फिरत, छुवति छबीली छांह।

बखतराम शाह ने भी सन 1770 ई. में लिखित ‘बुद्धिविलास’ में जयपुर के बाजारों और इनमें बिकने वाली पतंगों का वर्णन करते हुए लिखा है- कहुं बेचत गुड़ी पतंगबाज। स्थापत्य के लिए ससं ार में प्रसिद्ध हवामहल के निर्माता सवाई प्रतापसिंह के समय में बनाए गए एक चित्र में पेशवाज पहनी हुई और आभषूणों से अलंकृत नायिका को पतंग उड़ाते हुए दिखाया गया है। जयपुर के राजाओं में पतंगबाजी में सबसे अधिक रुचि महाराजा राम सिंह (maharaja ram singh) (सन 1835- 1880 ई.) की रही। वे चंद्रमहल की छत से बड़े-बड़े पतंग ‘तुकल’ उड़ाया करते थे। नंदकिशोर पारीक के अनुसार चंद्रमहल की छत से जो तुकल उड़ाए जाते वे आदम कद पतंग होते, जिनके पांवों में चांदी की छोटी-छोटी घुंघरियां फूंदन बनकर लटकी रहती थीं। भट्ट मथुरादास शास्त्री ने अपने ‘जयपुरवैभवम्’ में मकर संक्रांति का बहुत मनोरंजक वर्णन करते हुए कहा है कि प्रत्येक घर में आनंद व उत्साह छा रहा है। नगर निवासी पतंगों का आनंद ले रहे हैं। बालक ऊंचा मुंह किए हुए पतंगों के पीछे भागादौड़ी कर रहे हैं। आज भी सकरात के दिन जयपुर में विशेष रूप से परकोटे के अंदर बसे हुए जयपुर में ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं।

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